" मातृवान् पितृवान् आचार्यवान् पुरूषोवेद " अर्थात जिसे योग्य मां, बाप और गुरू मिलते हैं उसको ही ज्ञान मिलता है। ऐसा सद्भाग्य संसार में बहुत ही कम लोगों को मिलता है। इनमें से एक थे भगवान श्री दत्तात्रेय । वे अत्रि ऋषि और महासती अनसूया के पुत्र थे । अत्रि अर्थात 'त्रिगुणातीत' और अनसूया अर्थात 'असूया-रहित' ।
पुराण में कथा है कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश महासती अनसूया के सतीत्व को परखने के लिए अत्रि ऋषि के आश्रम पहुंचे। उन्होंने अनसूया से कहा कि --"निर्वस्त्र अवस्था में हमें भिक्षा दीजिए।" पतिव्रता स्त्री के लिए यह काम अत्यंत मुश्किल था और यदि भिक्षा न दे तो आथित्य-सत्कार में कमी रह जाती। लेकिन महासती अनसूया ने अत्यंत सूझबूझ से काम लिया। अनसूया ने अपने तप और सतीत्व के प्रभाव से तीनों देवों (ब्रह्मा-विष्णु-महेश ) को शिशुओं में परिवर्तित कर दिया और उन्हें अपना स्तनपान कराया। जब ब्रह्माणी, लक्ष्मी और पार्वती को इस बात को पता चला तो उन्होंने अनसूया से अपने पतियों को क्षमा करने और उन्हें पूर्वास्था में लाने का अनुरोध किया। अनसूया ने तीनों देवों को क्षमा कर दिया और उन्हें पूर्वास्था में ला दिया। तीनों देवों ने अनसूया को आशीर्वाद दिया कि --"आपने हमें बालरूप प्रदान किया और आप हमारी मां बनीं। अब हम तीनों आपको आश्वासन देते हैं कि हम तीनों एक होकर आपकी कोख से जन्म लेंगे।" देवों के उस आशीर्वाद से उनके संयुक्त रूप में जन्म लेनेवाले बालक को ही "दत्त" कहा गया। पिता का नाम साथ जुड़ जाने के बाद उनका नाम "दत्तात्रेय" पड़ा।
दूसरी जगह ऐसा वर्णन भी आया है कि एक महान दिव्य शक्ति को अपने पुत्र के रूप में अवतरण कराने हेतु महर्षि अत्रि और महासती अनसूया ने पति-पत्नी के रूप त्र्यक्षकुल पर्वत के अरण्य में घोर तपस्या की । उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर त्रिदेव ( ब्रह्मा-विष्णु-महेश ) प्रकट हुए और वर देने की इच्छा जताई । महर्षि अत्रि ने वर मांगा कि --"ब्रह्मांड की एक महान दिव्य शक्ति मेरे पुत्र के रूप में पृथ्वी पर अवतरित हो।" त्रिदेव बोले -- " अहं तुभ्यं मया दत्त " अर्थात मैंने अपने को आपके पुत्र के रूप में दान दे दिया । दानवाचक "दत्त" और अम्बिका पुत्र "आत्रेय" ---इन दोनों के मिलन से अत्रि - अनसूया के पुत्र का नाम दत्त + आत्रेय = "दत्तात्रेय" पड़ा । अत्रि, अनसूया और दत्तात्रेय के बारे में शिव पुराण , वाल्मीकि रामायण, स्कंद पुराण, गुरूचरित , श्रीमद्भागवत , मत्स्य पुराण, मार्कण्डेय पुराण भी मिलता है।
महाराष्ट्र के कई स्थानों पर भगवान दत्तात्रेय के सोलह अवतार उनकी जन्म तिथि के भव्य रूप से मनाये जाते हैं । [ सभी का यहां वर्णन करने से लेख बहुत लम्बा हो जायेगा। ] भगवान दत्तात्रेय का कार्यक्षेत्र सम्पूर्ण भारतवर्ष है । दत्तात्रेयवज्रकवच में इस विषय में लिखा हुआ है ---
अर्थात भगवान श्री दत्तात्रेय वाराणसी ( काशी ) में नित्य प्रातः गंगा स्नान करते हैं, कोल्हापुर में नित्य जप करते हैं और सह्याद्रि की गुफाओं में दिगम्बर वेष में शयन ( विश्राम ) करते हैं।
दत्तात्रेय जयंती मार्गशीर्ष पूर्णिमा को संध्या समय मनाई जाती है। उस दिन भक्तगण उपवास ( या फलाहार ) करते हैं । संध्याकाल में जन्मोत्सव मनाया जाता है। उनकी मूर्ति की दशोपचार किंवा षोडशोपचार से सविधि पूजा की जाती है। फिर आरती उतारी जाती है। फिर पुष्पांजलि , प्रदक्षिणा, क्षमा-प्रार्थना के बाद गुरूवंदन और मातृ-पितृवंदन इत्यादि किया जाता है। कुछ दत्त क्षेत्रों में यह भी देखा गया है कि भक्तगण पूजा-सामग्री , नैवेद्य, आरती इत्यादि लेकर आकाश में उस दिन दिखाई पड़नेवाले मृगशिरा नक्षत्र के तीन तारों को भगवान त्रिमूर्ति ( दत्तात्रेय ) समझकर उनकी पूजा, आरती तथा प्रदक्षिणा करते हैं और दत्तात्रेय के दर्शन पाने का हर्षोल्लास मनाते हैं।
भगवान दत्तात्रेय ने 24 चर-अचर जीवों और वस्तुओं से कुछ न कुछ सीखा और उन्होंने उन्हें अपना गुरू माना । श्रीमद्भागवत ( 33/ 34/ 11 / 7 ) में ऐसा वर्णन है :--
उनके चौबीस गुरुओं के नाम थे :--पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, कबूतर, अजगर, समुद्र, पतंगा, भौंरा या मधुमक्खी, हाथी, शहद निकालनेवाला, हिरण, मछली, पिंगला वेश्या, कुरर पक्षी, बालक, कन्या, बाण बनानेवाला, सर्प , मकड़ी और भृंगी कीट।
जब शंकर तीन वर्ष के थे तभी उनके पिता की मृत्यु हो गई थी , अतः अनगिन कष्ट झेलकर उनकी माता ने ही उनका लालन - पालन किया था । वे अपनी मां की बहुत सेवा करते थे । उनकी मां दूर नदी से पानी लाती थी । एक बार की बात है कि उनकी मां नदी पर पानी लेने गई थी और वहाँ बेहोश हो गई थी । जब शंकर को पता चला तो उन्हें बहुत दुख हुआ था । उन्होंने मंत्रों के बल पर नदी को गांव के निकट बहने के लिए मजबूर कर दिया था ।
शंकर अपनी धर्मयात्रा में व्यस्त थे । उनको अपनी मां की मौत का आभास हुआ । वे अपने घर लौटे और अपनी माता का अंतिम संस्कार करना चाहा तो उनके पड़ोसी और रिश्तेदार भड़क उठे और लोग मरने - मारने पर आमादा हो गए क्योंकि संन्यास परम्परा में किसी भी संन्यासी द्वारा अपने परिवारजनों या रिश्तेदारों का अंतिम संस्कार करने का प्रावधान नहीं है । यदि कोई संन्यासी ऐसा करता है तो उसका संन्यास भंग माना जाता है । अतः किसी ने उनको सहयोग नहीं किया । मजबूर होकर संन्यासी शंकर ने अकेले ही अपनी मां का अंतिम संस्कार किया।
भगवान दत्तात्रेय को भगवान विष्णु का छठा अवतार माना जाता है। इस लिहाज से इनका सीधा सम्बंध वैष्णव संप्रदाय से है लेकिन इनको समन्वय देव के रूप में मान्यता प्राप्त है। हमारे देश में प्राचीनकाल में अनेक पंथ या सम्प्रदाय थे जो आपस में सदैव लड़ते- झगड़ते रहते थे जिससे सामाजिक वातावरण बड़ा विषाक्त रहता था लेकिन भगवान दत्तात्रेय में लोग समंवयकता के दर्शन करते हैं।जब हम दत्तात्रेय का चित्र देखते हैं तो उनके तीन मुख, छ: हाथ और सभी हाथों में शस्त्र या वस्तुएं, पास में एक गाय और चार कुत्ते। तीन मुख तीन देवों को दर्शाते हैं--बायें ब्रह्मा, बीच में विष्णु और दायें महेश ( शिव )। दत्तात्रेय के छ: हाथों में कमण्डल, माला, शंख, चक्र, त्रिशूल और डमरू हैं जो कि विशिष्ट अर्थसूचक हैं। कमण्डल और माला ब्रह्मा के हैं । शंख और चक्र विष्णु के हैं तो त्रिशूल और डमरू शिव के हैं। उनके ऐसे रूप को देखकर विभिन्न पंथ या सम्प्रदाय के अनुयायी अपने आप को उनसे जोड़ते हैं। शंख और चक्र के आधार पर वैष्णव लोग इन्हें भगवान विष्णु का अवतार मानते हैं लेकिन त्रिशूल और डमरू के आधार पर शैव लोग भी अपना मानते हैं। इनके साथ गाय को देखकर दशनाम गोस्वामी इन्हें अपना मानते थे क्योंकि प्राचीनकाल में गोस्वामी लोग गायों को सबसे अधिक पालते थे या मान्यता देते थे। इनके पास चार कुत्ते दिखाई देते हैं जिनके आधार पर भैरवनाथ को मानने वाले लोग अपने आप को इनसे जोड़ते हैं क्योंकि ये लोग कुत्तों को भैरव का अवतार मानते हैं।
वैसे तो भगवान दत्तात्रेय वैष्णव विचारधारा के देव हैं जबकि दशनाम गोस्वामी ( वन, अरण्य, तीर्थ, आश्रम, गिरि, पर्वत, सागर, सरस्वती, भारती , पुरी उपनामधारक लोग ) विशुद्ध रूप से शैव हैं अर्थात केवल भगवान शिव को अपना आराध्यदेव माननेवाले लोग हैं। दशनाम शैव संन्यासियों के सात अखाड़े हैं जिनमे से जूना अखाड़ा सबसे अधिक व्यापक एवं शक्तिशाली है और इसके इष्टदेव भगवान दत्तात्रेय हैं। इस लिहाज से देखें तो दशनाम गोस्वामी लोग शैव होते हुए भी वैष्णव संस्कृति को आत्मसात करनेवाले लोग हैं। दशनाम गोस्वामी लोग आदि शंकराचार्य की जयंती हर वर्ष पूरी धूमधाम से मनाते हैं साथ ही वे भगवान दत्तात्रेय को भी बहुत मानते हैं और उनकी जयंती भी जगह- जगह मनाते हैं । उस दिन जगह - जगह झांकियां निकाली जाती हैं , व्रत रखें जाते हैं , कीर्तन-भजन होते हैं ।