शंकराचार्य जीवनी

भारत ऋषियों और मुनियों का देश रहा है । इस देश में अनेक महापुरुष हुए हैं जिन्होंने इस देश और समाज को बहुत कुछ दिया है । ऐसे ही महापुरुष थे आदि शंकराचार्य ( 788 - 820 ई . ) जिन्होंने इस देश और सनातन संस्कृति को बहुत कुछ दिया । उनका योगदान अतुल्य है । ऐसा संन्यासी इस देश में कोई दूसरा अभी तक पैदा नहीं हुआ है । वे व्यक्ति एक थे लेकिन उनके रूप अनेक थे । आओ , इसी बात को विस्तार से जानें :-

★ शिवावतार के रूप में
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आदि शंकराचार्य का जन्म ईसा की आठवीं शताब्दी में केरल प्रांत ( चेर देश ) में 788 ई. को कालाटी ( अन्यत्र नाम कालाड़ी ) गांव में हुआ था [ यह तिथि धार्मिक तिथि से मेल नहीं खाती है । स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपनी पुस्तक "सत्यार्थ प्रकाश" में बताया है कि आदि शंकराचार्य 2200 वर्ष पहले हुए थे । लेकिन इतिहासकार उनका समय 788 ई. से 820 ई. निर्धारित कर चुके हैं ] । उनके पितामह का नाम विद्याधर था जो कि नम्बूदरीपाद कुलीन ब्राह्मण थे और शिव के परम भक्त थे अर्थात वे शैव ब्राह्मण थे । उनके पिता का नाम शिवगुरू और माता का नाम विशिष्टा देवी ( अन्यत्र नाम : आर्या / आर्याम्बा ) था । दोनों ही शिव के भक्त थे ।

जिस समय आदि शंकराचार्य का जन्म हुआ था उस समय भारतीय समाज की दशा बहुत खराब थी । समाज में अराजकता एवं अव्यवस्था थी । मांस , मदिरा , भोगविलास की प्रवृत्ति हावी थी । आडम्बरों और पाखंडों का बोलबाला था । धर्म की हानि हो रही थी और अधर्म फैल रहा था । बौद्ध धर्म सनातन धर्म ( हिंदू धर्म ) को नष्ट करने के लिए तैयार था । लोगों को विश्वास था कि उस कुव्यवस्था से मुक्ति दिलाने के लिए कोई चमत्कार अवश्य होगा या कोई अवतार अवश्य आयेगा क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा था :-


"यदा यदा हि धर्मस्य , ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानं धर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।"

शिवगुरू और विशिष्टा संतानहीन थे । उन्होंने भगवान शिव की कठोर तपस्या की । भगवान शिव ने स्वप्न में उनको दर्शन दिये और संतान के रूप में अवतरित होने की इच्छा जताई । बालक का जन्म योग अवतार में हुआ । बालक के मस्तक पर चक्रचिह्न , ललाट पर नेत्रचिह्न और स्कंद पर शूलचिह्न देखकर पंडितों एवं ज्योतिषियों ने उसे शिवावतार के रूप में स्वीकार किया । बालक का नाम "शंकर" रखा गया।


★ बालक के रूप में
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बालक शंकर अत्यंत मेधावी थे । छोटी उम्र में ही वे बहुत कुछ जानते थे । दो - तीन वर्ष की आयु में ही उन्होंने वेदों और विभिन्न शास्त्रों को कंठस्थ कर लिया था । उनके पड़ोसी और परिचित लोग उनके बुद्धिचातुर्य से अचम्भित थे । वे तीन वर्ष के थे तभी उनके पिता का देहावसान हो गया था । उनकी मां ने उन्हें पाला - पोसा । पांचवें वर्ष में उनको विद्याध्ययन के लिए गुरूगृह भेजा । उनकी बुद्धिमत्ता से उनके शिक्षक अत्यंत प्रभावित थे । विद्याध्ययन के पश्चात वे अपने घर लौटे।


★ बाल संन्यासी के रूप में
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बालक शंकर संन्यासी बनना चाहते थे लेकिन उनकी मां ऐसा नहीं चाहती थीं । बालक की ज़िद के आगे मां को आज्ञा देनी पड़ी । आठ वर्ष की आयु में बालक शंकर ने अपने गुरू शैव संन्यासी स्वामी गोविंदपादभागवात्पद से संन्यास की विधिवत् दीक्षा ली और वे शंकर से "शंकरपाद" कहलाये । वे काशी गये और अपने अनुभवों से बहुत कुछ सीखा । मार्ग में उन्हें एक विधवा स्त्री मिली जो असलियत में आद्याशक्ति थी जिससे शंकर को ज्ञान मिला कि "बिना शक्ति के शिव शव मात्र हैं । जीव एवं ब्रह्म अभिन्न हैं ।" चाण्डाल के वेष में उनकी मुलाकात भगवान शिव से हुई जिससे शंकर को ज्ञान मिला कि "शरीर से शरीर में कोई अंतर नहीं है क्योंकि सभी में ब्रह्म का वास है ।" 12 वर्ष की आयु में वे हिमालय पर गये जहाँ बदरी क्षेत्र में उनकी भेंट व्यासदेव से हुई जिन्होंने शंकर को ग्रंथों को लिखने के लिए प्रेरित किया । सोलह वर्ष की आयु में संन्यासी शंकर ने ढेरों ग्रंथ लिख डाले।


★ गुरू - शिष्य परम्परा के रूप में
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आदि शंकराचार्य तो अद्वैत वेदांत परम्परा में आते हैं जो कि इस प्रकार है : -- सत्ययुग में तीन आचार्य हुए -- नारायण , ब्रह्मा और रुद्र ; त्रेतायुग में तीन आचार्य हुए -- वशिष्ठ , शक्ति , पराशर ; द्वापर में दो आचार्य हुए -- व्यासदेव और शुकदेव ; कलियुग में तीन आचार्य हुए -- गौड़पाद , गोविंदपाद तथा शंकरपाद ( अर्थात आदि शंकराचार्य ) । कुल मिलाकर 11 आचार्य हुए हैं जिनमें से पहले आठ सपत्नीक थे अर्थात घरबारी थे जबकि अंतिम तीन आचार्य ( गौड़पाद , गोविंदपाद , शंकरपाद ) विरक्त संन्यासी थे । आदि शंकराचार्य ने इस परम्परा को आगे बढ़ाया । उन्होंने देश के चारों कोनों में चार महामठ स्थापित किये और अपने चार शिष्यों को उनके पीठाधीश बनाये और उनको "शंकराचार्य" की पदवी से विभूषित किया । कालांतर में उनके शिष्यों ने फिर अपने शिष्य बनाये और फिर यह सिलसिला 1300 सालों के बाद आज तक भी जारी है । हर शंकराचार्य को अपने नाम के साथ दशनाम पदवी ( उपाधि ) -- वन , अरण्य , तीर्थ , आश्रम , गिरि , पर्वत , सागर , सरस्वती , भारती , पुरी -- में से एक पदवी ( उपाधि ) धारण करना अनिवार्य कर दिया गया।


★ पुत्र के रूप में
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जब शंकर तीन वर्ष के थे तभी उनके पिता की मृत्यु हो गई थी , अतः अनगिन कष्ट झेलकर उनकी माता ने ही उनका लालन - पालन किया था । वे अपनी मां की बहुत सेवा करते थे । उनकी मां दूर नदी से पानी लाती थी । एक बार की बात है कि उनकी मां नदी पर पानी लेने गई थी और वहाँ बेहोश हो गई थी । जब शंकर को पता चला तो उन्हें बहुत दुख हुआ था । उन्होंने मंत्रों के बल पर नदी को गांव के निकट बहने के लिए मजबूर कर दिया था ।

शंकर अपनी धर्मयात्रा में व्यस्त थे । उनको अपनी मां की मौत का आभास हुआ । वे अपने घर लौटे और अपनी माता का अंतिम संस्कार करना चाहा तो उनके पड़ोसी और रिश्तेदार भड़क उठे और लोग मरने - मारने पर आमादा हो गए क्योंकि संन्यास परम्परा में किसी भी संन्यासी द्वारा अपने परिवारजनों या रिश्तेदारों का अंतिम संस्कार करने का प्रावधान नहीं है । यदि कोई संन्यासी ऐसा करता है तो उसका संन्यास भंग माना जाता है । अतः किसी ने उनको सहयोग नहीं किया । मजबूर होकर संन्यासी शंकर ने अकेले ही अपनी मां का अंतिम संस्कार किया।


★ धार्मिक यात्री के रूप में
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बालक शंकर ने आठ वर्ष की आयु में संन्यास धारण कर लिया था और तभी से धार्मिक स्थलों के दर्शनार्थ घर से निकल पड़े थे । वे काशी , प्रयागराज , कुरूक्षेत्र , हरिद्वार , ऋषिकेश , देवप्रयाग , श्रीनगर , रूद्रप्रयाग , कर्णप्रयाग , नंदप्रयाग , विष्णुप्रयाग , ज्योतिर्धाम , धौलिगंगा , ब्रह्मकुंड , शिवकुंड , पाण्डुकेश्वर , बद्रीधाम , केदारधाम , गंगोत्री , पंचवटी , पण्डरपुर , श्रीशैल , गोकर्ण , मूकाम्बिका , श्रृंगेरी , कालाड़ी , तुलाभवानी , रामेश्वरम , कांचीपुरम , उज्जयिनी , द्वारका , पुरी , पुरूषपुर ( पेशावर ) , गांधार देश ( वर्तमान में काबुल और पेशावर के बीच का स्थान ) , कश्मीर , तिब्बत , नेपाल इत्यादि स्थानों पर गये। उन्होंने अपने जीवन में कई बार पूरे भारत का भ्रमण किया जबकि उन दिनों आवागमन के साधन बहुत ही कम थे और मार्ग अत्यंत दुर्गम एवं खतरनाक थे।


★ योगी के रूप में
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संन्यासी शंकर उच्चकोटि के योगी थे । वे योग , ध्यान , तप , समाधि , दूरदर्शन , दूरश्रवण , सूक्ष्मदेह निर्माण , व्योमगमन , परकाया प्रवेश , अग्निपदगमन , जलपदगमन इत्यादि क्रियाओं में पारंगत थे । ऐसी क्रियाओं के उनके जीवन में कई उदाहरण हैं । एक उदाहरण प्रस्तुत है --- उस समय के सबसे बड़े विद्वान मंडन मिश्र से शास्रार्थ करने के लिए संन्यासी शंकर माहिष्मती नगरी जा पहुंचे । पितृश्राद्ध होने के कारण द्वारपाल ने द्वार खोलने से मना कर दिया । शंकर तो शास्रार्थ के लिए इतने उतावले थे कि वे अपने आपको रोक नहीं सके । योगबल के आधार पर वे मिश्र जी के आंगन में प्रकट हो गए और मिश्र जी से शास्त्रार्थ करके ही माने । दूसरा उदाहरण देखिए --- शास्त्रार्थ में संन्यासी शंकर से मंडन मिश्र पराजित हो गये लेकिन उनकी पत्नी ( उदय भारती / सरस्वती ) ने हार नहीं मानी । उदय भारती ( अन्यत्र नाम : सरस्वती या सरसवाणी ) ने शंकर से कामशास्त्र के प्रश्न किये जबकि वह जानती थी कि शंकर आजीवन ब्रह्मचारी थे और वे ऐसे प्रश्नों के उत्तर नहीं दे पायेंगे । शंकर ने कुछ महीनों का समय मांगा । शंकर वन को लौट पड़े । रास्ते में उन्होंने देखा कि राजा अमरक ( अन्यत्र नाम : राजा अमरूक ) की मौत हो गई थी और मातम छाया हुआ था । संन्यासी शंकर ने उस घटना को सुअवसर माना । उन्होंने सारी बात अपने शिष्यों को अच्छी तरह से समझायी । वे एक अपने शरीर को एक गुफा में अपने शिष्यों के हवाले करके मृत राजा के शरीर में प्रवेश कर गये । राजा फिर से जीवित हो उठा । सारे राज्य में खुशी की लहर दौड़ गई । गाजे - बाजे के साथ लोग राजा को महल में ले गए । शंकर ने वहाँ वैवाहिक जीवन के क्रियाकलापों के बारे में जाना । निश्चित समय पर वे फिर से अपने शरीर में लौट आये और राजा फिर से मर गया । वे मंडन मिश्र की पत्नी के काम सम्बंधी प्रश्नों के समुचित उत्तर दे पाये । एक और उदाहरण देखिए -- संन्यासी शंकर अपने गाँव से बहुत देर भारत के भ्रमण पर थे । तभी उन्हें अपनी मां के अंतिम समय का आभास हुआ । घर लौटने में काफी दिन लग सकते थे , अतः उन्होंने योगविद्या का सहारा लिया और वे आकाशमार्ग से जल्दी ही अपने घर पहुंच गये । योगविद्या के बल पर भी उन्होंने अपना माता को विभिन्न दिव्य विभूतियों के दर्शन कराये।


★ दिग्विजेता के रूप में
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आचार्य शंकर को 'दिग्विजेता' कहा जाता है । उन्होंने पूरे भारत का भ्रमण करके नास्तिकों , चार्वाकों , जैनों , बौद्धों , धर्मद्रोहियों और धर्मविद्रोहियों को शास्त्रार्थ में हराया । तिब्बत , नेपाल एवं कश्मीर से कन्याकुमारी तक , असम से अफगानिस्तान तक वे धर्मदिग्विजय करने में सफल रहे। इसीलिए वे "धर्मदिग्विजेता" कहलाये।


★ सनातन धर्म के पुनरोद्धारक के रूप में
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उस समय भारत में बौद्ध धर्म का बोलबाला था और सनातन धर्म ( हिंदू धर्म ) मिटने को था । आचार्य शंकर ने सनातन धर्म को पुनर्जीवित किया । भारत की प्राचीनतम सामाजिक धरोहर वर्णाश्रम व्यवस्था समाप्त हो चली थी । आचार्य शंकर ने वर्णाश्रम व्यवस्था को पुनः स्थापित किया । तीर्थों में लोग अपने - अपने ढंग से पूजा कर रहे थे जो पूर्णतः अवैदिक थी । उन्होंने पूजापद्धति में एकरूपता पैदा की । उन्होंने जगह - जगह मंदिर स्थापित किये । जो मंदिर टूट - फूट गये थे उनका जीर्णोद्धार कराया । बद्रीनाथ और केदारनाथ में विग्रहों को पुनः स्थापित किया जो कि चीनी दस्युओं के डर से कुंडों में छिपा दिये गए थे । उन्होंने नरबलि और पशुबलि जैसी कुप्रथाओं को बंद कराया।


★ मठसंस्थापक के रूप में
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आदि शंकराचार्य ने भारत के चार कोनों में चार मठ स्थापित किये - पूर्व दिशा में गोवर्द्धन मठ ( पुरी , उड़ीसा ) , पश्चिम दिशा में शारदा मठ ( द्वारका , गुजरात ) , उत्तर दिशा में ज्योतिर्मठ ( उत्तराखंड , हिमालय ) और दक्षिण दिशा में श्रृंगेरी मठ ( मैसूर , कर्नाटक ) । सभी मठों के देवी , देवता , तीर्थ , वेद , सम्प्रदाय , महावाक्य , संन्यासी , कार्यक्षेत्र निश्चित कर दिये गये ताकि उनमें आपस में टकराव न हो । श्रृंगेरी मठ को मठों का मुख्यालय माना गया।


★ दशनाम सम्प्रदाय के जनक के रूप में
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सनातन धर्म को बचाने और उसके प्रचार - प्रसार के लिए आदि शंकराचार्य ने अति उच्च एवं कट्टर दस ब्राह्मणों को संन्यासी बनाया जिनके उपनाम थे --- वन , अरण्य , तीर्थ , आश्रम , गिरि , पर्वत , सागर , सरस्वती , भारती और पुरी । उन्होंने वन और अरण्य संन्यासियों को गोवर्धन मठ से , तीर्थ और आश्रम संन्यासियों को द्वारका मठ से , गिरि , पर्वत , सागर संन्यासियों को ज्योतिर्मठ से , सरस्वती , भारती , पुरी संन्यासियों को श्रृंगेरी मठ से सम्बद्ध किया । वे दस उपनाम ही "दशनाम सम्प्रदाय" या "दशनाम पंथ" कहलाये । कालांतर में उन दस संन्यासियों और उनके शिष्यों ने पूरे देश में अनेक उप मठ स्थापित किये जिन्हें मढ़ी या मठिया कहा जाता था । अब उसी दशनाम सम्प्रदाय या पंथ को "दशनाम गोस्वामी समाज" कहा जाता है जिसमें विरक्त एवं गृहस्थ -- दोनों धाराएं समाहित हैं।


★ राष्ट्रीय एकता के सूत्रधार के रूप में
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आदि शंकराचार्य के काल ( 788 ई. - 820 ई. ) में भारत छोटे - छोटे राज्यों में विभक्त था जो आपस में लड़ते - झगड़ते रहते थे । केन्द्रीय सत्ता का अभाव था । वही हालत विभिन्न सम्प्रदायों और पंथों की थी जो सदैव आपस में लड़ते - झगड़ते रहते थे । उन्होंने विभिन्न सम्प्रदायों जैसे -- शैवों , वैष्णवों , शाक्तों , सूर्योपासकों , यमोपासकों , गणपत्यों इत्यादि में समंवय स्थापित किया । उन्होंने "पंचदेव पूजा" की शुरुआत की जो आज तक जारी है --- शिव , पार्वती , गणेश , विष्णु और सूर्य एक ही मंदिर में एक ही समय में पूजे जाने का प्रावधान किया । उन्होंने धर्म के आधार पर पूरे देश को एक सूत्र में बांधा । वे सभी को भगवा झंडे के नीचे लाने में सफल रहे । जो लोग सनातन धर्म को छोड़कर बौद्ध या जैन बन गये थे उनको वे सनातन धर्म में वापस ला सके । यदि वे ऐसा उस समय नहीं करते तो सनातन धर्म ( हिंदू धर्म ) कभी का मिट गया होता।


★ ग्रंथकार के रूप में
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आदि शंकराचार्य ने अनेक ग्रंथों की रचना की जिनको चार श्रेणियों में विभाजित किया जाता है -- ( 1 ) भाष्य ग्रंथ , ( 2 ) स्तोत्र ग्रंथ , ( 3 ) प्रकरण ग्रंथ और ( 4 ) तंत्र ग्रंथ । भाष्य ग्रंथों में ब्रह्मसूत्र , गीता और उपनिषदों के भाष्य हैं । ईश , केन , कठ , प्रश्न , मुण्डक , मांडूक्य , ऐतरेय , तैत्तिरीय , बृहदारण्यक और छांदोग्य उपनिषदों पर उन्होंने भाष्य लिखे। भाष्य को टीका भी बोलते हैं । स्तोत्र ग्रंथों में गणेश , शिव , देवी , विष्णु और अन्य देवी - देवताओं की स्तुतियाँ हैं । प्रकरण ग्रंथों में वेदांत का विवेचन है । तंत्र ग्रंथों में तंत्रविद्या एवं प्रपंच का उल्लेख है।


♀ महाग्रंथ "गोस्वामीनामा" के पृष्ठ 86 से 97 से उद्धृत ।